*श्री साँई सच्चरित्र काव्य रूप सार*- अध्याय 24
श्री साँई हैं हमारे गुरूवर
देखे साँई चरणों की ओर
प्राप्त हो हमें सत्य स्वरूप
अगर अहंकार दे हम छोड़ ।।1।।
साँई भक्ति से होये हम
सुख शांति के अधिकारी
हमारी इच्छाएं पूर्ण होये
आध्यात्मिक और संसारी ।।2।।
साँई लीला श्रवण करे
व मनन करे अगर कोय
जीवन का ध्येय मिले उसे
परम आनन्द भी प्राप्त होय ।।3।।
प्रिय हैं सभी को हास्य
परन्तु पात्र बने न कोय
बाबा हास्य विनोद करे
वह अति शिक्षाप्रद होय ।।4।।
साँई के शिर्डी गाँव में
बाजार लगे हर इतवार
निकट गाँव के लोग आ
वे करते अपना व्यापार ।।5।।
एक इतवार की बात हैं
पंत दबा रहे साँई चरण
बूटी, दीक्षित के संग संग
वहाँ थे शामा और वामन ।।6।।
अण्णा कमीज देख लो
हँसकर शामा कहे जाय
जब शामा बाँह स्पर्श करें
वहाँ कुछ चने के दाने पाय ।।7।।
पंत कुहनी सीधी करे
कुछ चने लुढ़क जाये
जो चने नीचे गिर पड़े
भक्त लोग उन्हें उठाये ।।8।।
हास्य का विषय मिला
भक्तगण आनन्द उठाये
ये चने यहाँ आये कहाँ से
सब अपने अनुमान लगाये ।।9।।
तब बाबा कहने लगे
अण्णा एकांत में खाय
दिन हैं आज बाजार का
वहाँ से ये चने चबाते आये ।।10।।
हेमाडपंत जी कहने लगे
अकेले में वे कुछ न खाय
जब बाजार आज गये नही
फिर भला कैसे चने वे पाय ।।11।।
जब भोजन का समय हो
और निकट हो अगर कोय
पहले उसे उसका भाग दे
तब ही भोजन ग्रहण होय ।।12।।
पंत से बाबा कहने लगे
तुम सत्य बात बतलाये
किंतु कोई निकट न हो
तब क्या ही किया जाये ।।13।।
भोजन करने से पहले
क्या करते मुझे अर्पण
मुझको दूर क्यो जानते
मैं साथ तुम्हारे हर क्षण ।।14।।
पहले साँई अर्पण करो
भोजन बन जाये प्रसाद
साँई हमें यही शिक्षा देते
वे तो हैं सदा हमारे साथ ।।15।।
इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि
पदार्थों का लेवे स्वाद
पहले साँई स्मरण करें
पदार्थ बन जाते प्रसाद।।16।।
भोजन जब हो सामने
पहले करो साँई को याद
स्मरण,अर्पण की विधि हैं
भोज ग्रहण हो उसके बाद ।।17।।
ये अच्छे स्वभाव हैं नही
क्रोध, तृष्णा और इच्छाये
ईश्वरअर्पण का अभ्यास हो
पल में ये सभी नष्ट हो जाये ।।18।।
गुरू व ईश्वर एक ही
इनमें भिन्नता न कोय
जो गुरू की सेवा करे
उस पर प्रभु कृपा होय ।।19।।
नेत्रों से हम देखते रहे
साँई का स्वरूप सगुण
वैराग्य, मोक्ष मिले हमें
व मिल जाये भक्ति पूर्ण ।।20।।
मिट जाये क्षुधा हमारी
गर साँई ध्यान हो प्रगाढ़
संसार से मोह भी ना रहे
सुख व शांति मिले अगाध ।।21।।
चने की हास्यकथा यह
पंत जी वर्णन किये जाये
सुदामा की एक कथा का
पंत जी को स्मरण हो आये ।।22।।
कृष्ण और बलराम संग
सुदामा भी वन को जाय
कृष्ण विश्राम करने लगे
सुदामा अकेले चने खाय ।।23।।
तब कृष्ण पूछने लगे
दादा, तुम क्या खाय
कृष्ण स्वयं भगवान हैं
वे सब कुछ जान जाय ।।24।।
तब सुदामा कहने लगे
वह कुछ भी तो न खाय
यहाँ शीत से वह काँप रहे
दाँत से कड़कड़ ध्वनि आय ।।25।।
फल भोगते हुए सुदामा
गरीबी में जीवन बिताये
मुट्ठीभर चावल भेंट करे
श्री कृष्ण प्रसन्न हो जाये ।।26।।
भगवान श्रीकृष्ण उन्हें
स्वर्ण नगरी किये प्रदान
पहले प्रभु को अर्पण हो
कथा से मिलता यह ज्ञान ।।27।।
दूसरी हास्यकथा का
पंत हेमाड करे वर्णन
यह कथा बतलाये हमे
बाबा करे शांति स्थापन ।।28।।
निडर प्रकृति के भक्त एक
नाम था दामोदर घनश्याम
बाहर रूखे,भीतर से सरल
अण्णा चिंचणीकर उपनाम ।।29।।
एक समय बाबा के भक्त
बाबा के अंग अंग दबाय
साँई सेवा का अवसर पा
सभी भक्त धन्य हो जाय ।।30।।
थी वृद्ध महिला भक्त एक
लोग कहते उन्हें मौसीबाई
वेणुबाई कौजलगी नाम था
माँ कहा करते थे उन्हें साँई ।।31।।
साँई सेवा करे मौसीबाई
सभी अंगुलियाँ मिलाकर
साँई का शरीर दबाये जाये
भक्त श्रीअण्णा चिंचणीकर ।।32।।
तब मौसीबाई कहने लगी
वह करते हुए हास्यविनोद
बहुत बुरा इंसान हैं अण्णा
चुंबन करना चाहे यह प्रौढ़ ।।33।।
क्रोध में हो अण्णा कहे
तुम कह रही मुझे वृद्ध
मैं कोई बुरा व्यक्ति नही
झगड़ रही हो तुम व्यर्थ ।।34।।
मौसीबाई मजाक करे
अण्णा क्रोधित हो जाय
दोनों का यह विवाद देख
सब लोग आनंद लिये जाय ।।35।।
बाबा दोनों पर स्नेह रखे
इस विवाद को सुलझाय
हे अण्णा क्यों झगड़ रहे
प्रेमपूर्वक साँई कहे जाय ।।36।।
माँ का चुंबन करने में
दोष या हानि ना कोय
बाबा ने यह शब्द कहे
सुनकर दोनों शांत होय ।।37।।
भक्तगण जो थे वहाँ
ठहाका लगाये जाय
विनोद का विषय यह
भक्तो को आनन्द आय ।।38।।
जो भक्त जैसे सेवा करे
उसे वैसे करने दी जाय
अगर सेवा में दखल दे
साँई को पसंद ना आय ।।39।।
एक समय मौसीबाई
साँई सेवा किये जाय
थी भक्ति में लीन वह
बलपूर्वक पेट दबाय ।।40।।
कहि नाड़ी टूट ना जाये
माँ तुम धीरे दबाओ पेट
मौसीबाई से कहने लगे
भक्त वहाँ जो थे अनेक ।।41।।
साँई सुनकर यह बात
क्रोध में खड़े हो जाय
लाल आँखे लिए साँई
हाथ में सटका उठाय ।।42।।
एक छोर नाभि में लगाये
जमीन पर था दूजा छोर
सटके से धक्का देने लगे
भक्त देख रहे थे साँई ओर ।।43।।
सभी भक्त भयभीत हुए
साँई का पेट फट न जाय
किंतु कोई कुछ बोले नही
मानो हो गूंगो का समुदाय ।।44।।
भक्तो का संकेत था यह
सहज भाव से होये सेवा
इसलिए माँ को कहा था
ताकि कष्ट नही पाये देवा ।।45।।
साँई को यह पसंद नही
दे भक्ति में दखल कोय
भक्त जन यह समझ गये
साँई इसलिए क्रोधित होय ।।46।।
भाग्यशाली थे भक्तजन
शांत हुआ साँई का क्रोध
आसन पर जा बैठे साँई
और सटका दिया छोड़ ।।47।।
कार्य मे दखल हो नही
भक्तगण यह शिक्षा पाय
जो जैसे साँई की सेवा करे
उसे वैसे सेवा करने दी जाय ।।48।।
सब भक्तो की तू सुनता
साँई तू हैं कृपा का सागर
'गौरव' तुझसे अरदास करे
साँई भर देना सबकी गागर ।।49।।
यह अध्याय सम्पूर्ण हुआ
हमें कई शिक्षा मिल जाय
साँई का नाम लेते रहे हम
साँई नाम में आनन्द आय ।।50।।
।। ॐ साँई श्री साँई जय जय साँई ।।