Friday, October 9, 2015

श्री साँई सच्चरित्र अध्याय 10

श्री साई सच्चरित्र
अध्याय 10 - श्री साईबाबा का रहन सहन, शयन पटिया, शिरडी
में निवास, उनके उपदेश, उनकी विनयशीनता, सुगम पथ ।
प्रारम्भ
श्री साईबाबा का सदा ही प्रेमपूर्वक स्मरण करो, क्योंकि वे सदैव
दूसरों के कल्याणार्थ तत्पर तथा आत्मलीन रहते थे । उनका स्मरण
करना ही जीवन और मृत्यु की पहेली हल करना हैं । साधनाओं में यह
अति श्रेष्ठ तथा सरल साधना है, क्योंकि इसमें कोई द्रव्य व्यय नहीं
होता । केवल मामूली परिश्रम से ही भविष्य नितान्त फलदायक
होता है । जब तक इन्द्रयाँ बलिष्ठ है, क्षण-क्षण इस साधना को
आचरण में लाना चाहिये । अन्य सब देवी-देवता तो भ्रमित करने
वाले है, केवल गुरु ही ईश्वर है । हमें उनके ही पवित्र चरणकमलों में
श्रदा रखनी चाहिये । वे तो हर इन्सान के भाग्यविधाता और
प्रेममय प्रभु हैं । जो अनन्य भाव से उनकी सेवा करेंगे, वे भवसागर से
निश्चय ही मुक्ति को प्राप्त होंगे । न्याय अथवा मीमांसा या
दर्शनशास्त्र पढ़ने की भी कोई आवश्यकता नहीं है । जिस प्रकार
नदी या समुद्र पार करते समय नाविक पर विश्वास रखते है, उसी
प्रकार का विश्वास हमें भवसागर से पार होने के लिये सदगुरु पर
करना चाहिये । सदगुरु तो केवल भक्तों के भक्ति-भाव की ओर ही
देखकर उन्हें ज्ञान और परमानन्द की प्राप्ति करा देते हैं ।
गत अध्याय में बाबा की भिक्षावृत्ति, भक्तों के अनुभव तथा
अन्य विषयों का वर्णन किया गया हैं । अब पाठकगण सुनें कि श्री
साईबाबा किस प्रकार रहते, शयन करते और शिक्षा प्रदान करते थे

बाबा का विचित्र बिस्तर
पहले हम यह देखेंगे कि बबा किस प्रकार शयन करते थे । श्री
नानासाहेब डेंगले एक चार हाथ लम्बा और एक हथेली चौड़ा लकड़ी
का तख्ता श्री साईबाबा के शयन के हेतु लाये । तख्ता कहीं नीचे
रक कर उस पर सोते, ऐसा न कर बाबा ने पुरानी चिन्दियों से
मसजिद की बल्ली से उसे झूले के समान बाँधकर उस पर शयन करना
प्रारम्भ कर दिया ।
चिन्दियों के बिल्कुल पतली और कमजोर होने के कारण लोगों
को उसका झूला बनाना एक पहेली-सा बन गया । चिन्दियाँ तो
केवल तख्ते का भी भार वहन नहीं कर सकतती थी । फिर वे बाबा
के शरीर का भार किस प्रकार सहन कर सकेंगी । जिस प्रकार भी
हो, यह तो राम ही जानें, परन्तु यह तो बाबा की एक लीला थी,
जो फटी चिन्दियाँ तख्ते तथा बाबा का भार सँभाल रही थी ।
तख्ते के चारों कोनों पर दीपक रात्रि भर जला करते थे । बाबा
को तख्ते पर बैठे या शयन करते हुए देखना, देवताओं को भी दुर्लभ
दृश्य था । सब आश्चर्यचकित थे कि बाबा किस प्रकार तख्ते पर
चढ़ते होंगे और किस प्रकार नीचे उतरते होंगे । कौतूहलवश लोग इस
रहस्योद्घघाटन के हेतु दृष्टि लगाये रहते थे, परंतु यह समझने में कोई
भी सफल न हो सका और इस रहस्य को जानने के लिये भीड़
उत्तरोत्तर ही बढ़ने लगी । इस कारण बाबा ने एक दिन तख्ता
तोड़कर बाहर फेंक दिया । यघपि बाबा को अष्ट सिद्घियाँ
प्राप्त था, परन्तु उन्होंने कभी भी उनका प्रयोग नहीं किया और
न कभी उनकी ऐसी इच्छा ही हुई । वे तो स्वतः ही स्वाभाविक
रुप से पू्र्णता प्राप्त होने के कारण उनके पास आ गई थी ।
ब्रहम का सगुण अवतार
ब्राहृदृष्टि से श्री साईबाबा साढ़े तीन हाथ लम्बे एक सामान्य
पुरुष थे, फर भी प्रत्येक के हृदय में वे विराजमान थे । अंदर से वे
आसक्ति-रहित और स्थिर थे, परन्तु बाहर से जन-कल्याण के लिये
सदैव चिन्तित रहते थे । अंदर से वे संपूर्ण रुप से निःस्वार्थी थे ।
भक्तों के निमित्त उनके हृदय में परम शांति विराजमान थी, परंतु
बाहर से वे अशान्त प्रतीत होते थे । वे अन्तस से ब्रहमज्ञानी, परन्तु
बाहर से संसार में उलझे हुए दिखलाई पड़ते थे । वे कभी प्रेमदृष्टि से
देखते तो कभी पत्थर मारते, कभी गालियाँ देते और कभी हृदय से
लगाते थे । वे गम्भीर, शान्त और सहनशील थे । वे सदैव दृढ़ और
आत्मलीन रहते थे और अपने भक्तों का सदैव उचित ध्यान रखते थे। वे
सदा एक आसन पर ही विराजमान रहते थे । वे कभी यात्रा को
नहीं निकले । उनका दंड एक छोटी सी लकड़ी था, जिसे वे सदैव
अपने पास सँभाल कर रखते थे । विचारशून्य होने के कारण वे शान्त थे
। उन्होंने कांचन और कीर्ति की कभी चिन्ता नहीं की तथा सदा
ही भिक्षावृति द्घारा निर्वाह करते रहे । उनका जीवन ही इस
प्रकार का था । अल्लाह मालिक सदैव उनके होठों पर रहता था ।
उनका भक्तों पर विशेष और अटूट प्रेम था । वे आत्म-ज्ञान की
खान और परम दिव्य स्वरुप थे । श्री साईबाबा का दिव्य स्वरुप इस
तरह का था । एक अपरिमित, अनन्त, सत्य और अपरिवर्तनशील
सिद्घान्त, जिसके अन्त्रगत यह सारा विश्व है, श्री साईबाबा में
आविर्भूत हुआ था । यह अमूल् निधि केवल सत्व गुण-सम्पन्न और
भाग्यशाली भक्तों को ही प्राप्त हुई । जिन्होंने श्री साईबाबा
को केवल मनुष्य या सामान्य पुरुष समझा या समझते है, वे यथार्थ में
अभागे थे या हैं ।
श्री साईबाबा के माता-पिता तथा उनकी जन्मतिथि क ठीक-
ठीक पता किसी को भी नहीं है तो भी उनके शिरडी में निवास
के द्घारा इसका अनुमान लगाया जा सकता हैं । जब पहलेपहल
बाबा शिरडी में आये थे तो उस समय उनकी आयु केवल 16 वर्ष की
थी । वे शिरडी में 3 वर्ष तक रहने के बाद फिर कुछ समय के लिये
अंतद्घान हो गये । कुछ काल के उपरान्त वे औरंगबाद के समीर
(निजाम स्टेट) में प्रकट हुए और चाँद पाटील की बारात के साथ
पुनः शिरडी पधारे । उस समय उनकी आयु 20 वर्ष की थी । उन्होंने
लगातार 60 वर्षों तक शिरडी में निवास किया और सन् 1918 में
महासमाधि ग्रहण की । इन तथ्यों के आधार पर हम कह सकते है कि
उनकी जन्म-तिथि सन् 1838 के लगभग थी ।
बाबा का ध्येय और उपदेश
सत्रहवी शताब्दी (1608-1681) में सन्त रामदास प्रकट हुए और
उन्होंने यवनों से गायों और ब्राहमणों की रक्षा करने का कार्य
पर्याप्त सीमा तक सफलतापूर्वक किया । परन्तु दो शताब्दियों
के व्यततीत हो जाने के बाद हिन्दू और मुसलमानों में वैमनस्य बढ़
गया और इसे दूर रने के लिये ही श्री साईबाबा प्रगट हुए । उनका
सभी के लिये यही उपदेश था कि राम (जो हिन्दुओं का भगवान है)
और रहीम (जो मुसलमानों का खुदा है) एक ही है और उनमें किंचित
मात्र भी भेद नहीं है । फिर तुम उनके अनुयायी क्यों पृथक-पृथक
रहकर परस्रप झगड़ते हो । अज्ञानी बालको । दोनों जातियाँ
एकता साध कर और एक साथ मिलजुलकर रहो । शांत चित्त से रहो
और इस प्रकार राष्ट्रीय एकता का ध्येय प्राप्त करो । कलह और
विवाद व्यर्थ है । इसलिए न झगड़ो और न परस्पर प्राणघातक ही
बनो । सदैव अपने हित तथा कल्याण का विचार करो । श्री हरि
तुम्हारी रक्षा अवश्य करेंगे । योग, वैराग्य, तप, ज्ञान आदि ईश्वर
के समीप पहुँचने के मार्ग है । यदि तुम किसी तरह सफल साधक नहीं
बन सकते तो तुम्हारा जन्म व्यर्थ है । तुम्हारी कोई कितनी ही
निन्दा क्यों न करे, तुम उसका प्रतिकार न करो । यदि कोई शुभ
कर्म करने की इच्छा है तो सदैव दूसरों की भलाई करो ।
संक्षेप में यही श्री साईबाबा का उपदेश है कि उपयुक्त कथनानुसार
आचरण करने से भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में
तुम्हारी प्रगति होगी ।
सच्चिदानंद सदगुरु श्री साईनाथ महाराज
गुरु तो अनेक है कुछ गुरु ऐसे है, जो द्घार-द्घार हाथ में वीणा और
करताल लिये अपनी धार्मिकता का प्रदर्शन करते फिरते हैं । वे
शिष्यों के कानों में मंत्र फूँकते और उनकी सम्पत्ति का शोषण करते
हैं । वे ईश्वर भक्ति तथा धार्मिकता का केवल ढोंग ही रचते हैं । वे
वस्तुतः अपवित्र और अधार्मिक होते है । श्री साईबाबा ने
धार्मिक निष्ठा प्रदर्शित करने का विचार भी कभी मन में नहीं
किया । दैहिक बुद्घि उन्हें किंचितमात्र भी छू न गई थी । परन्तु
उनमें भक्तों के लिए असीम प्रेम था । गुरु दो प्रकार के होते है –
नियत और
अनियत ।
अनियत गुरु के आदेशों से अपने में उत्तम गुणों का विकास होता
तथा चित्त की शुद्घि होकर विवेक की वृद्घि होती है । वे
भक्ति-पथ पर लगा देते हैं । परन्तु नियत गुरु की संगति मात्र से द्घैत
बुद्घि का हृास शीघ्र हो जाता है । गुरु और भी अनेक प्रकार के
होते है, जो भिन्न-भिन्न प्रकार की सांसारिक शिक्षाये प्रदान
करते हैं । यथार्थ में जो हमें आत्मस्थित बनाकर इस भवसागर से पार
उतार दे, वही सदगुरु है । श्री साईबाबा इसी कोटि के सदगुरु थे ।
उनकी महानता अवर्णीनीय है । जो भक्त बाबा के दर्शनार्थ आते,
उनके प्रश्न करने के पूर्व ही बाबा उनके समस्त जीवन की
त्रिकालिक घटनाओं का पूरा-पूरा विवरण कह देते थे । वे समस्त
भूतों में ईश्वर-दर्शन किया करते थे । मित्र और शत्रु उन्हें दोनों एक
समान थे । वे निःस्वार्थी तथा दृढ़ थे । भाग्य और दुर्भाग्य का उन
पर कोई प्रभाव न था । वे कभी संशयग्रस्त नहीं हुए । देहधारी
होकर भी उनहें देह की किंचितमात्र आसक्ति न थी । देह तो उनके
लिण केवल एक आवरण मात्र था । यथार्थ में तो वे नित्य मुक्त थे ।
वे शिरडीवासी धन्य है, जिन्होंने श्री साईबाबा की ईश्वर-रुप में
उपासना की । सोते-जागते, खाते-पीते, वाड़े या खेत तथा घर में
अन्य कार्य करते हुए भी वे लोग सदैव उनका स्मरण तथा गुणगान करते
थे । साईबाबा के अतिरिक्त दूसरा कोई ईश्वर वे मानते ही न थे ।
शिरडी की नारियों के प्रेम की माधुरी का तो कहना ही क्या
है । वे विलकुल भोलीभाली थी । उनका पवित्र प्रेम उन्हें ग्रामीण
भाषा में भजन रचने की सदैव प्रेरणा देता रहता था । यघपि वे
शिक्षित न थी तो भी उनके सरल भजनों में वास्तविक काव्य की
झलक थी । यह कोई विदृता न थी, वरना उनका सच्चा प्रेम ही इस
प्रकार की कविता का प्रेरक था । कविता तो सत्ते प्रेम का
प्रगट स्वरुप ही है, जिसमें चतुर श्रोता-गण ही यथार्थ दर्शन या
रसिकता का अनुऊव करते है । सर्वसाधारण को इन लौकिक गीतों
की बड़ी आवश्यकता है । शायद भविष्य में बाबा की कृपा से कोई
भाग्यशाली भक्त गीतसंग्रह-कार्य उपने हाथ में लेकर इन गीतों
को साईलीला पत्रिका में या पुस्तक रुप में प्रकाशित करवा दे ।
बाबा की विनयशीलता
ऐसा कहते है कि भगवान् में 6 प्रकार के विशेष गुण होते है – यथा
कीर्ति
श्री
वैराग्य
ज्ञान
ऐश्वर्य और
उदारता
श्री साईबाबा में भी ये सव गुण विघमान थे । उन्होंने भक्तों की
इच्छा-पूर्ति के निमित्त ही सगुण अवतार धारण किया था ।
उनकी कृपा (दया) बड़ी ही विचित्र थी। वे भक्तों को स्वयं अपने
पास आकर्षित करते थे । अन्यथा उन्हें कोई कैसे जान पाता ।
भक्तों के हेतु वे अपने श्रीमुख से ऐसे वचन कहते, जिनका वर्णन करने
का सरस्वती भी साहस न कर सकती । उनमें से यहाँ पर एक रोचक
नमूना दिया जाता हैं । बाबा अति विनम्रता से इस प्रकार बोलते
दासानुदास, मैं तुम्हारा ऋणी हूँ, तुम्हारे दर्षन मात्र से मुझे
सान्त्वना मिली, यह तुम्हारा मेरे ऊपर बड़ा उपकार है कि जो मुझे
तुम्हारे चरणो, का दर्शन प्राप्त हुआ । तुम्हारे दर्शन कर मैं अपने को
धन्य समझता हूँ । कैसी विनम्रता है । यदि कोई यह सोचे कि इन
वाक्यों को प्रकाशित करने से श्री साईबाबा की महानता को
आँच पहुँची है तो मैं इसके लिये क्षमाप्रार्थी हूँ और इसके
प्रायश्चित स्वरुप मैं साई नाम का कीर्तन तथा जप किया करता
हूँ ।
यघपु बाहृय दृष्टि से बाबा विषय-पदार्थों का उपभोग करते हुए
प्रतीत होते थे, परन्तु उन्हें किंचितमात्र भी उनकी गन्ध न थी और
न ही उनके उपभोग का ज्ञान था । वे खाते अवश्य थे, परन्तु उनकी
जिहृा को कोई स्वाद न था । वे नेत्रों से देखते थे, परन्तु उस दृश्य में
उनकी कोई रुचचि न थी । काम के सम्बन्ध में वे हनुमान सदृश अखंड
ब्रहमचारी थे । उन्हें किसी पदार्थ में आसक्ति न थी । वे शुद्घ चैतन्य
स्वरुप थे, जहाँ समस्त इच्छाएँ, अहंकार और अन्य चेष्टाएँ विश्राम
पाती थी । संक्षेप में वे निःस्वार्थ, मुक्त और पूर्ण ब्रहम थे । इस
कथन को समझने के हेतु एक रोचक कथा का उदाहरण यहाँ दिया
जाता है ।
नानावल्ली
शिरडी में नानावल्ली नाम का एक विचित्र और अनोखा व्यक्ति
था । वह बाबा के सब कार्यों की देखभाल किया करता था । एक
समय जब बाबा गादी पर विराजमान थे, वह उनके पास पहुँचा । वह
स्वयं ही गादी पर बैठना चाहता था । इसलिये उसने बाबा को
वहाँ से हटने को कहा । बाबा ने तुरन्त गादी छोड़ दी और तब
नानावल्ली वहाँ विराजमान हो गया । थोड़े ही समय वहाँ बैठकर
वह उठा और बाबा को अपना स्थान ग्रहण करने को कहा । बाबा
पुनः आसन पर बैठ गये । यह देखकर नानावल्ली उनके चरणों पर गिर
पड़ा और भाग गया । इस प्रकार अनायास ही आज्ञा दिये जाने
और वहाँ से उठाये जाने के कारण बाबा में किंचितमात्र भी
अप्रसन्नता की झलक न थी ।
सुगम पथः सनन्तों की कथाओं का श्रवण करना और उनका समागम
यघपि बाहय दृष्टि से श्री साईबाबा का आचरण सामान्य पुरुषों
के सदृश ही था, परन्तु उनके कार्यों से उनकी असाधारण
बुद्घिमत्ता और चतुराई स्पष्ट ही प्रतीत होती थी । उनके समस्त
कर्म भक्तों की भलाई के निमित्त ही होते थे । उन्होने कभी भी
अपने भक्तों को किसी आसन या प्राणायाम के नियमों अथवा
किसी उपासना का आदेश कभी नहीं दिया और न उनके कानों में
कोई मन्त्र ही फूँका । उनका तो सभी के लिये यही कहना था कि
चातुर्य त्याग कर सदैव साई साई यही स्मरण करो । इस प्रकार
आचरण करने से समस्त बन्धन छूट जायेंगे और तुम्हें मुक्ति प्राप्त हो
जायेगी । पंचामि, तप, त्याग, स्मरण, अष्टांग योग आदि का
साध्य होना केवल ब्राहमणों को ही सम्भव है, अन्य वर्णों के लिये
नहीं ।
मन का कार्य विचार करना है । बिना विचार किये वह एक क्षण
भी नहीं रह सकता । यदि तुम उसे किसी विषय में लगा दोगे तो वह
उसी का चिन्तन करने लगेगा और यदि उसे गुरु को अर्पण कर दोगे
तो वह गुरु के सम्बन्ध में ही चिन्तन करता रहेगा । आप लोग बहुत
ध्यानपूर्वक साई की महानता और श्रेष्ठता श्रवण कर ही तुके है ।
यह स्वाभाविक स्मरण और पूजन ही साई का कीर्तन है । सन्तों
की कथा का स्मरण उतना कठिन नहीं, जितना कि अन्य
साधनाओं का, जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है । ये कथाएँ
सासारिक भय को निर्मूल कर आध्यात्मिक पथ पर आरुढ़ करती है ।
इसलिये इन कथाओं काहमेशा श्रवण और मनन करो तथा आचरण में
भी लाओ । यदि इन्हें कार्यान्वित किया गया तो न केवन
ब्राहमण, वरन स्त्रियाँ और अन्य दलित जातियाँ भी शुदृ और
पावन हो जायेंगी । सासारिक कार्यों में लगे रहने पर भी अपना
चित्त साई और उनकी कथाओं में लगाये रहो । तब तो यह निश्चत है
कि वे कृपा अवश्य करेंगे । यह मार्ग अति सरल होने पर भी क्या
कारण है कि सब कोई इसका अवलम्बन नहीं करते । कारण केवल यह है
कि ईश-कृपा के अभाववश लोगों मे सन्त कथाएँ श्रवण करने की रुचि
उत्पन्न नहीं होती । ईश्वर की कृपा से ही प्रत्येक कार्य सुचारु एवम
सुंदर ढंग से चलता है । सन्तों की कथा का श्रवणे ही सन्तसमागम
सदृश है । सन्त-सानिध्य का महत्व अति महान है । उससे दैहिक
वुद्घि, अहंकार और जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्ति, हो जाती है । हृदय
की समस्त ग्रंथियाँ खुल जाती है और ईश्वर से मिलन हो जाता है,
जोकि चैतन्यघन स्वरुप है । विषयों से निश्चय ही विरक्ति बढ़ती है
तथा दुःखों और सुखों में स्थिर रहने की शक्ति प्राप्त हो जाती
है और आध्यात्मिक उन्नति सुलभ हो जाती है । यदि तुम कोई
साधन जैसे नामस्मरण, पूजन या भक्ति इत्यादि नहीं करते, परन्तु
अनन्य भाव से केवल सन्तों के ही शरणागत हो जाओ तो वे तुम्हें
आसानी से भवसागर के उस पार उतार देंगे । इसी कार्य के निमित्त
ही सन्त विश्व में प्रगट होते है । पवित्र नदियाँ – गंगा, यमुना,
गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि जो संसार के समस्त पापों को
धो देती है, वे भी सदैव इच्छा करती है कि कोई महात्मा अपने
चरण-स्पर्श से हमें पावन करे । ऐसा सन्तों का प्रभाव है । गत जन्मों
के शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही श्री साई चरणों की प्राप्ति संभव है ।
मैं श्रीसाई के मोह-विनाशक चरणों का ध्यान कर यह अध्याय
समाप्त करता हूँ । उनका स्वरुप कितना सुन्दर और मनोहर है ।
मसजिद के किनारे पर खड़े हुए वे सब भक्तों के, उनके कल्याणार्थ
उदी वितरण किया करते है । जो इस विश्व को मिथ्या मानकर
सदा आत्मानंद में निमग्न रहते थे, ऐसे सच्चिदानंद श्रीसाईमहाराज
के चरणकमलों में मेरा बार-बार नमस्कार हैं ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

श्री साँई सच्चरित्र अध्याय 9

।। श्री साँई सच्चरित्र सप्ताह पारायण- श्री साँई बाबा महासमाधि दिवस विशेष ।।

आज प्रथम दिन की सूचि:-
आप इसमें अपना नाम देख ले एवं अपना अध्याय पढ़ ले आज ही

एवम् अध्याय आरम्भ करने से पूर्व मन में भाव रखे कि ये साँई आशियाना-द्वारकामाई का सामूहिक सप्ताह पारायण है जो सब सदस्य मिल कर पूर्ण करेंगे अत इसमें कोई त्रुटि हो तो साँई क्षमा करे एवम् साँई जी सभी पर कृपा बनाये रखे ।

आज 9 oct की सूचि सप्ताह पारायण हेतू:-

अध्याय 1- Renu Di
अध्याय 2- Puneet ji
अध्याय 3- Varinder H Uncle
अध्याय 4- sanjeev Arora ji
अध्याय 5- Aditya Amrit
अध्याय 6- Mala Di
।। श्री साँई सच्चरित्र सप्ताह पारायण प्रथम विश्राम: ।।

Thursday, October 8, 2015

श्री साँई सच्चरित्र अध्याय 8

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 8
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 8
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मानव जन्म का महत्व, श्री साईबाबा की भिक्षा-वृत्ति,
बायजाबई की सेवा-शुश्रूशा, श्री साईबाबा का शयनकक्ष,
खुशालचन्त पर प्रेम ।
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जैसा कि गत अध्याय में कहा गया है, अब श्री हेमाडपन्त मानव
जन्म की महत्ता को विस्तृत रुप में समझातेहैं । श्री साईबाबा
किस प्रकार भिक्षा उपार्जन करते थे, बायजाबाई उनकी किस
प्रकार सेवा-शुश्रूशा करती थी, वे मसजिद में तात्या कोते और
म्हालसापति के साथ किस प्रकार शयन करते तथा खुशानचन्द पर
उनका कैसा स्नेह था, इसका आगे वर्णन किया जायेगा ।
मानव जन्म का महत्व
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इस विचित्र संसार में ईश्वर ने लाखों प्राणियों (हिन्दू शास्त्र के
अनुसार 84 लाख योनियों) को उत्पन्न किया है (जिनमें देव, दानव,
गन्धर्व, जीवजन्तु और मनुष्य आदि सम्मिलित है), जो स्वर्ग, नरक,
पृथ्वी, समुदआ तथा आकाश में निवास करते और भिन्न-भिन्न धर्मों
का पालन करते हैं । इन प्राणियों में जिनका पुण्य प्रबल है, वे स्वर्ग
में निवास करते और अपने सत्कृत्यों का फल भोगते हैं । पुण्य के
क्षीण होते ही वे फिर निम्न स्तर में आ जाते हैं और वे प्राणी,
जिन्होंने पाप या दुष्कर्म किये हैं, नरक को जाते और अपने कुकर्मों
का फल भोगते हैं । जब उनके पाप और पुण्यों का समन्वय हो जाता
है, तब उन्हें मानव-जन्म और मोक्ष प्राप्त करने का अवसर प्राप्त
होता है । जब पाप और पुण्य दोनों नष्ट हो जाते है, तब वे मुक्त हो
जाते हैं । अपने कर्म तथा प्रारब्ध के अनुसार ही आत्माएँ जन्म लेतीं
या काया-प्रवेश करती हैं ।
मनुष्य शरीर अनमोल
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यह सत्य है कि समस्त प्राणियों में चार बातें एक समान है – आहार,
निद्रा, भय और मैथुन । मानव प्राणी को ज्ञान एक विशेष देन हैं,
जिसकी सहायता से ही वह ईश्वर-दर्शन कर सकता है, जो अन्य
किसी योलि में सम्भव नहीं । यही कारण है कि देवता भी मानव
योनि से ईष्रर्य़ा करते हैं तथा पृथ्वी पर मानव-जन्म धारण करने के
हेतु सदैव लालायित रहते है, जिससे उन्हें अंत में मुक्ति प्राप्त हो ।
किसी-किसी का ऐसा भी मत है कि मानव-शरीर अति दोषयुक्त
है । यह कृमि, मज्जा और कफ से परिपूर्ण, क्षण-भंगुर, रोग-ग्रस्त
तथा नश्वर है । इसमें कोई संदेह नहीं कि यह कथन अंशतः सत्य है ।
परन्तु इतना दोषपूर्ण होते हुए भी मानव शरीर का मूल्य अधिक है,
क्योंकि ज्ञान की प्राप्ति केवल इसी योनि में संभव है । मानव-
शरीर प्राप्त होने पर ही तो ज्ञात होता है कि यह शरीर नश्वर
और विश्व परिवर्तनशीन है और इस प्रकार धारणा कर इन्द्रिय-
जन्य विषयों को तिलांजलि देकर तथा सत्-असत् क् विवेक कर
ईश्वर-साक्षात्कार किया जा सकता है । इसलिये यदि हम शरीर
को तुच्छ और अपवित्र समझ कर उसकी उपेक्षा करे तो हम ईश्वर
दर्शन के अवसर से वंचित रह जायेंगे । यदि हम उसे मूल्यवान समझ कर
उसका मोह करेंगे तो हम इन्द्रिय-सुखों की ओर प्रवृत्त हो जायेंगे
और तब हमारा पतन भी सुनिशि्चत ही हैं ।
इसलिये उचित मार्ग, जिसका अवलम्बन करना चाहिये, यह है कि न
तो देह की उपेक्षा ही करो और न ही उसमें आसक्ति रखो । केवल
इतना ही ध्यान रहे कि किसी घुड़सवार का अपनी यात्रा में अपने
घोड़े पर तब तक ही मोह रहता है, जब तक वह अपने निर्दिष् स्थान
पर पहुँच कर लौट न आये ।
इसलिये ईश्वर दर्शन या आत्मसाक्षात्कार के निमित्त शरीर को
सदा ही लगाये रखना चाहिये, जो जीवन का मुख्य ध्येय है । ऐसा
कहा जाता है कि अनेक प्राणियों की उत्पत्ति करने के पश्चात्
भी ईश्वर को संतोष नहीं हुआ, कारण यह है कि कोई भी प्राणी
उसकी अलौकिक रचना और सृष्टि को समझने में समर्थ न हो सका
और इसी कारण उसने एक विशेष प्राणी अर्थात् मानव जाति की
उत्पत्ति की और उसे ज्ञान की विशेष सुविधा प्रदान की । जब
ईश्वर ने देखा कि मानव उसकी लीला, अद्भभुत रचनाओं तथा
ज्ञान को समझने के योग्य है, तब उन्हें अति हर्ष एवं सन्तोष हुआ ।
(भागवत स्कंध 11-9-28 के अनुसार) । इसलिये मानव जन्म प्राप्त
होना बड़े सौभाग्य का सूचक है । उच्च ब्राहमण कुल में जन्म लेना
तो परम सौभाग्य का लक्षण है, परन्तु श्री साई-चरणाम्बुजों में
प्रीति और उनकी शरणागति प्राप्त होना इन सभी में अति श्रेष्ठ
हैं ।
मानव का प्रत्यन
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इस संसार में मानव-जन्म अति दुर्लभ है । हर मनुष्य की मृत्यु ते
निश्चित ही है और वह किसी भी क्षण उसका आलिंगन कर सकती
है । ऐसी ही धारणा कर हमें अपने ध्येय की प्राप्ति में सददैव तत्पर
रहना चाहिये । जिस प्रकार खोये हुये राजकुमार की खोज में
राजा प्रत्येक सम्भव उपाय प्रयोग में लाता है, इसी प्रकार
किंचित् मात्र भी विलंब न कर हमें अपने अभीष्ट की सिदि के हेतु
शीघ्रता करनी ही सर्वथा उचित है । अतः पूर्ण लगगन और
उत्सुकतापूर्वक अपने ध्येय, आलस्य और निद्रा को त्याग कर हमें
ईश्वर का सर्वदा ध्यान रखना चाहिये । यदि हम ऐसा न कर सकें
तो हमें पशुओं के स्तर पर ही अपने को समझना पड़ेगा ।
कैसे प्रवृत्त होना ।
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अधिक सफलतापूर्वक और सुलभ साक्षात्कार को प्राप्त करने का
एकमात्र उपाय है-किसी योग्य संत या सदगुरु के चरणों की शीतल
छाया में आश्रय लेना, जिसे कि ईश्वर-साक्षात्कार हो चुका हो
। जो लाभ धार्मिक व्याख्यानों के श्रवण करने और धार्मिक
ग्रन्थों के अध्ययन करने से प्राप्त नहीं हो सकता, वह इन उच्च
आत्मज्ञानियों की संगति से सहज ही में प्राप्त हो जाता है ।
जो प्रकाश हमें सूर्य से प्राप्त होता है, वैसा विश्व के समस्त तारे
भी मिल जायें तो भी नहीं दे सकते । इसी प्रकार जिस
आध्यात्मिक ज्ञान की उपलब्धि हमें सदगुरु की कृपा से हो सकती
है, वह ग्रन्थों और उपदेशों से किसी प्रकार संभव नहीं है । उनकी
प्रत्येक गतिविधि, मृदु-भाषण, गुहा उपदेश, क्षमाशीलता, स्थरता,
वैराग्य, दान और परोपकारिता, मानव शरीर का नियंत्रण,
अहंकार-शून्यता आदि गुण, जिस प्रकार भी वे इस पवित्र मंगल-
विभूति दृारा व्यवहार में आते है, सत्संग दृारा भक्त लोगों को
उसके प्रत्यक्ष दर्शन होते है । इससे मस्तिष्क की जागृति होती
तथा उतत्रोत्तर आध्यात्मिक उन्नति होती रहती है । श्री
साईबाबा इसी प्रकार के एक संत या सदगुरु थे । यघपि वे बाहृरुप से
एक फकीर का अभिनय करते थे, परन्तु वे सदैव आत्मलीन रहते थे । वे
समस्त प्राणियों से प्रेम करते और उनमें भगवत्-दर्शन का अनुभव करते
थे । सुखों का उनको कोई आकर्षण न था और न वे आपत्तियों से
विचलित होते थे । उनके लिये अमीर और फकीर दोनों ही एक
समान थे । जिनकी उपार्जन किया करते थे । यह कार्य वे इस
प्रकार करते थे –
श्री साईबाबा की भिक्षा-वृत्ति
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शिरडीवासियों के भाग्य की कौन कल्पना कर सकता है कि
जिनके दृार पर परब्रहा भिक्षुक के रुप में खड़े रहकर पुकार करते थे, औ
साई । एक रोटी का टुकड़ा मिले और उसे प्राप्त करने के लिये
अपना हाथ फैलाते थे । एक हाथ में वे सदा टमरेल लिये रहते तथा दूसरे
में एक झोली । कुछ गृहों में तो वे प्रतिदिन ही जाते और किसी-
किसी के दृार पर केवल फेरी ही लगाते थे । वे साग, दूध या छाँछ
आदि पदार्थ तो टिनपाट में लेते तथा भात व रोटी आदि अन्य
सूखी वस्तुएँ झोली में डाल लेते थे । बाबा की जिहृा को कोई
स्वाद-रुचि न थी, क्योंकि उन्होंने उसे अपने वश में कर लिया था ।
इसलिये वे भिन्न-भिन्न वस्तुओं के स्वाद की चिन्ता क्यों करते ।
जो कुछ भी भिक्षा में उन्हें मिल जाता, उसे ही वे मिश्रित कर
सन्तोषपूर्वक ग्रहण करते थे ।
अमुक पदार्थ स्वादिष्ट है या नही, बाबा ने इस ओर कभी ध्यान
ही न दिया, मानो उनकी जिहृा में स्वाद बोध ही न हो । वे केवल
मध्याहृ तक ही भिक्षा-उपार्जन करते थे । यह कार्य बहुत
अनियमित था । किसी दिन तो वो छोटी सी फेरी ही लगाते
तथा किसी दिन बारह बजे तक । वे एकत्रित भोजन एक कुण्डी में
डाल देते, जहाँ कुत्ते, बिल्लियाँ, कौवे आदि स्वतंत्रतापूर्वक
भोजन करते थे । बाबा ने उन्हें कभी नहीं भगाया । एक स्त्री भी,
जो मसजिद में झाडू लगाया करती थी, रोटी के दस-बारह टुकड़े
उठाकर अपने घर ले जाती थी, परन्तु किसी ने कभी उसे नहीं रोका
। जिन्होंने स्वप्न में भी बिल्लियों और कुत्तों को कभी दुतकार
कर नहीं भगाया, वे भला निस्सहाय गरीबों को रोटी के कुछ
टुकड़ो को उठाने से क्यों रोकते । ऐसे महान् पुरुष का जीवन धन्य हैं ।
शिरडीवासी तो पहले पहल उन्हें केवल एक पागल ही समझते थे और
वे शिरडी में इसी नाम से विख्यात भी हो गये थे । जो भिक्षा के
कुछ टुकडो पर निर्वाह करता हो, भला उसका कोई आदर कैसे
करता । परंतु ये तो उदार हृदय, त्याती और धर्मात्मा थे । यघपि वे
बाहर से चंचल और अशान्त प्रतीत होते थे, परन्तु अन्तःकरण से दृढ़
और गंभीर थे । उनका मार्ग गहन तथा गूढ़ था । फिर भी ग्राम में
कुछ ऐसे श्रदृावान् और सौभाग्यशाली व्यक्ति थे, जिन्होंने उन्हें
पहिचान कर एक महान् पुरुष माना । ऐसी ही एक घटना नीचे दी
जाती हैं ।
बायजाबई की सेवा
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तात्या कोते की माता, जिनका नाम बायजाबाई था, दोपहर के
समय एक टोकरी में रोटी और भाजी लेकर जंगल को जाया करती
थीं । वे जंगल में कोसों दूर जाती और बाबा को ढूँढ़कर उनके चरण
पकड़ती थीं । बाबा तो शान्त और ध्यानमग्न बैठे रहते थे । वे एक
पत्तल बिछाकर उस पर सब प्रकार के व्यंजनादि जैसे-रोटी, साग
आदि परोसती और बाबा से भोजन कर लेने के लिये आग्रह करती ।
उनकी सेवा तथा श्रदृा की रीति बड़ी ही विलक्षण थी –
प्रतिदिन दोपहर को जंगल में बाबा को ढूँढ़ना और भोजन के लिये
आग्रह करना । उनकी सेवा और उपासना की स्मृति बाबा को
अपने अन्तिंम क्षणों तक बनी रही । उनकी सेवा का ध्यान कर
बाबा ने उनके पुत्र को बहुत लाभ पहुँचाया । माँ और बेटे दोनों की
ही फकीर पर दृढ़ निष्ठा थी । उन्होंने बाबा को सदैव ईश्वर के
समान ही पूजा । बाबा उनसे कभी-कभी कहा करते थे कि फकीरी
ही सच्ची अमीरी है । उसका कोई अन्त नहीं । जिसे अमीरी के
नाम से पुकारा जाता है, वह शीघ्र ही लुप्त हो जाने वाली है ।
कुछ वर्षों के अनन्तर बाबा ने जंगल में विचरना त्याग दिया । वे
गाँव में ही रहने और मसजिद में ही भोजन करने लगे । इस कारण
बायजाबाई को भी उन्हें जंगल में ढूँढ़ने के कष्ट से छुटकारा मिल
गया।
तीनों का शयन-कक्ष
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वे सन्त पुरुष धन्य है, जिनके हृदय मेंभगवान वासुदेव सदैव वास करते है ।
वे भक्त भी भाग्यशाली है, जिन्हें उनका सालिध्य प्राप्त होता
है । ऐसे ही दो भाग्यशाली भक्त थे ।
1. तात्या कोते पाटील और
2. भगत म्हालसापति ।
दोनों ने बाबा के सानिध्य का सदैव पूर्ण लाभ उठाया । बाबा
दोनों पर एक ससमान प्रेम रखते थे । ये तीनों महानुभाव मसजिद में
अपने सिर पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर की ओर करते और केन्द्र में एक
दूसरे के पैर से पैर मिलाकर शयन किया करते थे । बिस्तर में लेटे-लेटे ही
वे आधी रात तक प्रेमपूर्वक वार्तालाप और इधर-उधर की चर्चायें
किया करते थे । यदि किसी को भी निद्रा आने लगती तो दूसरा
उसे जगा देता था । यदि तात्या खुर्रार्टे लेने लगते तो बाबा शीघ्र
ही उठकर उसे हिलाते और सिर पकड़ कर जोर से दबाते थे । यदि
कहीं वह म्हालसापति हुए तो उन्हें भी अपनी ओर खींचते और पैंरों
पर धक्का देकर पीठ थपथपाते थे । इस प्रकार तात्या ने 14 वर्षों
तक अपने माता-पिता को गृह ही पर छोड़कर बाबा के प्रेमवश
मसजिद में निवास किया । कैसे सुहाने दिन थे वे । उनकी क्या
कभी विस्मृति हो सकती है । उस प्रेम के क्या कहना । बाबा की
कृपा का मूल्य कैसे आँका जा सकता था । पिता की मृत्यु होने के
पश्चात तात्या पर घरबार की जिम्मेदारी आ पड़ी, इसलिये वे
अपने घर जाकर रहने लगे ।
राहाता निवासी खुशालचन्द
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शिरडी के गणपत तात्या कोते को बाबा बहुत ही चाहते थे । वे
राहाता के मारवाड़ी सेठ श्री. चन्द्रभान को भी बहुत प्यार करते
थे । सेठजी का देहान्त होने के उपरांत बाबा उसके भतीजे
खुशालचन्द को भी अधिक प्रेम करते थे । वे उनके कल्याण की
दिनरात फिक्र किया करते थे । कभी बैलगाड़ी में तो कभी ताँगें में
वे अपने अंतरंग मित्रों के साथ राहाता को जाया करते थे ।
ग्रामवासी बाबा के गाँव के फाटक पर आते ही उनका अपूर्व
स्वागत करते और उन्हें प्रणाम कर बड़ी धूमधाम से गाँव में ले जाते ते ।
खुशालचन्द बाबा को अपने घर ले जाते और कोमल आसन पर
बिठाकर उत्तम सुस्वादु भोजन कराते और आनन्द तथा प्रसन्न
चित्त से कुछ काल तक वार्तालाप किया करते थे । फिर बाबा
सबको आनंदित कर और आर्शीवाद देकर शिरडी वारिस लौट आते
थे ।
एक ओर राहाता (दक्षिण में) तथा दूसरी ओर नीमगाँव (उत्तर में)
था । इन दोनों ग्रामों के मध्य में शिरडी स्थित हैं । बाबा अपने
जीवनकाल में कभी भी इन सीमाओं के पार नहीं गये । उन्होंने
कभी रेलगाड़ी नहीं देखी और न कभी उसमें प्रवास ही किया,
परन्तु फिर भी उन्हें सब गाड़ियों के आवागमन का समय ठीक-ठीक
ज्ञात रहता था । जो भक्तगण बाबा से लौटने की आनुमति
माँगते और जो आदेशानुकूल चलते, वे कुशलतापूर्वक घर पहुँच जाते थे ।
परन्तु इसके विपरीत जो अवज्ञा करते, उन्हें दुर्भाग्य व दुर्घटनाओं
का सामना करना पड़ता था । इस विषय से सम्बन्धित घटनाओं
और अन्य विषयों का अगले अध्याय में विस्तारपूर्वक वर्णन किया
जायेगा ।
विशेष
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इस अध्याय के नीचे दी हुई टिप्पणी बाबा के खुशालचन्द पर प्रेम के
संबंध में है । किस प्रकार उन्होंने काकासाहेब दीक्षित को
राहाता जाकर खुशालचन्द को लिवा लाने को कहा और उसी
दोपहर को खुशालचन्द से स्वप्न में शिरडी आने को कहा, इसका
उल्लेख यहाँ नहीं किया गया है, क्योंकि इसका वर्णन इस
सच्चरित्र के 30वें अध्याय में किया जायेगा ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।